रविवार, 31 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दूसरा दिन -तीन




4 - वो हेलनवा का क्या हुआ

            शीघ्र ही तैयार होकर हम लोग भाटी जी की भोजनशाला में पहुँच गए । नाश्ते में मालवी स्टाइल में बना गर्मागर्म पोहा हमारा इंतजार कर रहा था । हमने अपनी अपनी प्लेट में पोहा लिया और लौंग की नमकीन, अमचूर के पाउडर, और हरे धनिये से उसकी गार्निशिंग करने लगे । राममिलन भैया को भूख ज़्यादा लगी थी और इससे ज़्यादा उत्सुकता हेलेन के बारे में जानने की थी ।उन्होंने सीधे चम्मच भर पोहा मुँह  में डाला और आर्य साहब से सवाल किया "सर वो आप हेलनवा के बारे में कुछ कह  रहे थे, हम तो सिर्फ एक सनीमा वाली हेलन को जानते हैं ..ऊ.. पिया तू अब तो आजा वाली ..ई कऊन सी हेलन है ?"

            आर्य साहब ने मुस्कुराते हुए कहा " नहीं भाई, हम जिस हेलेन के बारे में कह रहे थे वह प्राचीन ग्रीक की हेलेन है । अब इसके लिए मुझे आप लोगों को होमर के महाकाव्य इलियड की पूरी कथा ही सुनानी पड़ेगी । " बिलकुल सर बताइए ना । " अजय ने भी उत्सुकता दिखाते हुए कहा । डॉ.आर्य ने अपनी घड़ी देखी और ट्रेंच पर पहुँचने के समय का अंदाज़ लगते हुए कहना शुरू किया "हेलेन और ट्रॉय के युद्ध की यह कथा हमें यूनान के प्रसिद्ध कवि होमर के महाकाव्यों में मिलती है । प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस ने होमर का काल आठ सौ पचास ईसा पूर्व के लगभग बताया है ।  महाकवि होमर ने दो प्रसिद्ध महाकाव्य ‘इलियड’ और ‘ओडीसी’ की रचना की है 

            "सर ये वही होमर हैं ना जो हमारे यहाँ के सूरदास की भांति दृष्टिबाधित थे?" रवीन्द्र का सवाल था । सर ने प्रशंसा के भाव में सिर हिलाया " बिलकुल ! होमर के बारे में कहा जाता है कि वे एक निर्धन नेत्रहीन कवि थे और उन्होंने कुछ यथार्थ में अपनी कल्पना का सम्मिश्रण कर यह दो महाकाव्य रचे । वे अपनी रचनाओं का यूनान के विभिन्न राज्यों और नगरों में गायन भी किया करते थे । मौखिक परंपरा से होती हुई लगभग ईसापूर्व छठी शताब्दी में उनकी यह साहित्यिक कृति लिखित रूप पा सकी जिसमे बाद में और परिवर्तन हुए । प्राचीन यूरोप में होमर की लोकप्रियता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि सिकंदर अपनी मंजूषा में 'इलियड' की एक प्रति हमेशा रखता था और समय समय पर राजनीति में उससे उद्धरण भी दिया करता था ।यह बाइबिल के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय कृति थी । एक तरह से यह यूनानियों का धर्मग्रंथ ही था ।"

            "सर आगे भी तो बताइये। " अजय की उत्सुकता बढती जा रही थी । आर्य साहब फिर मुस्कुराए और कहने लगे "भाई,तुम्हें बड़ी जल्दी है हेलेन के बारे में जानने की । पहले पूरी कथा और इसके पीछे का इतिहास तो जान लो । इतिहास के विद्यार्थियों को कोई भी साहित्यिक कृति पढ़ते हुए भी पूरे  इतिहास बोध से लैस होना चाहिए उसी तरह साहित्य के विद्यार्थियों को भी साहित्य पढ़ते हुए साहित्य के और देश दुनिया के इतिहास के बारे में जानना चाहिए ।"

            सर की बात सुनकर अजय थोड़ा सा झेंप गया । आर्य साहब ने उसकी ओर ध्यान न देते हुए आगे का बखान शुरू किया " दरअसल 'इलियड' की कथा ट्रॉय और स्पार्टा इन दो प्राचीन राज्यों के युद्ध की कहानी है इसलिए सबसे पहले थोडा बहुत मैं तुम लोगों को इन राज्यों के बारे में बताना चाहता हूँ । ट्रॉय जिसे प्राचीन यूनानी भाषा में इलियोस या इलियोन भी कहते हैं , यूनान से पश्चिम में इजियन सागर के तट पर बसा एक शहर था । कहा जाता है कि यूनानियों के देवता डारडेनस ने आइडा पर्वत की तलहटी में सर्वप्रथम डारडेनिया नामक नगर बसाया था । इसी डारडेनस के वंशज राजा ट्रोस के तीन बेटे हुए इलस, एसरेकस और गेनिमिडिज़ । इनमें से इलस या इलियास ने इसी स्थान पर आइडा पर्वत कि ढलान पर ट्रॉय नगर की स्थापना की थी, इसलिए ट्रॉय नगर को  इलियम भी कहते हैं । होमर के महाकाव्य 'इलियड' का नाम इसी 'इलियम' के नाम पर है ।"

            आर्य सर ने एक नज़र युवा चेहरों पर डाली । सब बहुत ध्यान से यह आख्यान सुन रहे थे । उन्होंने आगे कहना शुरू किया "ट्रॉय के निकट ही यूनान में स्पार्टा का राज्य था । ट्रॉय और स्पार्टा इन दोनों राज्यों के बीच एजियन सागर था और आज के हिसाब से इन दोनों के बीच की दूरी साढ़े छह सौ किलोमीटर थी । स्पार्टा में टेंटेलस का वंश चलता था । टेंटेलस के पौत्र एट्रियस के एगमेनन और मेनेलियस  यह दो पुत्र हुए  । इसी स्पार्टा के राजा मेनेलियस की पत्नी थी हेलेन । वह अपूर्व सुंदरी थी । ट्रॉय के राजा इलस के प्रपौत्र राजकुमार पैरिस ने स्पार्टा की रानी हेलेन के अभूतपूर्व सौन्दर्य के बारे में सुन रखा था । वह सौन्दर्य की देवी एफ्रोडायटी की प्रेरणा से यूनान देश की यात्रा पर निकला और स्पार्टा पहुंचा । अब यहाँ एक उपकथा और  है ।  तुम लोग कहो तो वह कथा भी तुम्हें सुनाऊँ ? " " हाँ,हाँ सर, ज़रूर सुनाइये " हम सभीने एक साथ कहा । कहानी में हेलेन का प्रवेश हो चुका था और हम लोगों की उत्सुकता में वृद्धि हो गई थी ।

            "तो सुनो" सर ने कहा " वैसे मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ कि ग्रीक माइथोलॉजी की कथाओं में एक विशेषता यह है कि यहाँ भी देवी-देवता मनुष्यों के साथ युद्ध में भाग लेते हैं, उनसे विभिन्न कार्य करवाते हैं, उनके साथ उनके प्रणय सम्बन्ध और विवाह भी होते हैं ।" "मतलब देवी-देवताओं के मनुष्यों से प्रेम सम्बन्ध ?" अशोक ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की । "हाँ" आर्य सर ने कहा ऐसा ग्रीक माइथोलॉजी में है । पेरिस मनुष्य था और एफ्रोडायटी देवी से उनके संबंधों के बारे में एक कथा है ।"

            "एक बार समुद्रदेव नीरियस की बेटी थेटिस और यूनानी योद्धा पीलियस के विवाह के अवसर पर सब देवता इकठ्ठे हुए । लेकिन कलह की देवी एरिस को वहाँ आमंत्रित नहीं किया गया सो उसने वहाँ कलह फैलाने के उद्देश्य से सोने का एक सेब रख दिया जिस पर लिखा था 'सबसे रूपवती के लिए' । सो सबसे लावण्यमयी कहलाने के लिए देवियों में होड़ लग गई । इस प्रतियोगिता में तीन देवियाँ हेरा, एथिनी और एफ्रोडायटी  शामिल हुई ।"

            "मतलब यह कि उस समय भी मिस यूनिवर्स टाइप की प्रतियोगिता होती थी ?" अजय ने सवाल किया । "हाँ बिलकुल" आर्य सर ने कहा । " ट्रॉय के राजा इलस के प्रपौत्र राजकुमार पैरिस को इस प्रतियोगिता का निर्णायक बनाया गया इसलिए कि उस समय पैरिस की ख्याति उदार और निष्पक्ष व्यक्ति के रूप में थी । तीनों देवियाँ स्केमेंडर नदी में स्नान के पश्चात  पैरिस के सन्मुख पूर्णतया निर्वस्त्र स्थिति में प्रकट हुई । अपने पक्ष में निर्णय देने के लिए हेरा ने उसे दुनिया पर शासन का ,एथिनी ने ज्ञान और विवेक का तथा एफ्रोडायटी ने उसे संसार की सबसे रूपवती स्त्री हेलेन को प्रदान करने का प्रलोभन दिया ।"

            "वैरी गुड मतलब उस समय भी भ्रष्टाचार चलता था ।" अशोक त्रिवेदी ने बीच में ही कहा  । "बिलकुल ! " आर्य सर ने कहा "अब पैरिस को न दुनिया पर शासन करने की इच्छा थी न उसे ज्ञान और विवेक की आवश्यकता थी मतलब न वह साम्राज्यवादी था न ज्ञानपिपासु था बल्कि रूप का लोभी था इसलिए उसके मन में हेलेन को पाने की इच्छा बलवती हो गई सो पैरिस ने एफ्रोडायटी  के पक्ष में सबसे रूपवती होने का निर्णय दे दिया । दरअसल यही निर्णय ट्रॉय के युद्ध का बीज साबित हुआ । हेरा और एथिनी यह दोनों देवियाँ पैरिस के इस निर्णय से क्रोधित हो गईं और ट्रॉय के युद्ध में उन्होंने पेरिस के विरुद्ध स्पार्टा का साथ दिया और ट्रॉय नगर को नष्ट कर दिया ।

            "लेकिन सर यह युद्ध कैसे हुआ ?" अजय ने सवाल किया " हाँ वही बता रहा हूँ ।" सर ने कहा " फिर वह एक दिन ट्रॉय का राजकुमार पेरिस एफ्रोडायटी  की प्रेरणा से स्पार्टा पहुँच गया । उसका भव्य स्वागत किया गया, आखिर वह पड़ोसी देश का राजकुमार था । लेकिन जैसे ही उसने रानी हेलेन को देखा उस पर उसका दिल आ गया और वह अपनी सुध-बुध खो बैठा । इस बीच कुछ दिनों के लिए हेलेन का पति राजा मेनेलियस किसी काम से स्पार्टा से क्रीट द्वीप गया हुआ था सो मौका देखकर पैरिस उसकी पत्नी को लेकर भाग गया । अपने राज्य ट्रॉय में पहुँचाने पर उसका भव्य स्वागत किया गया जैसे दूसरे की पत्नी का अपहरण करके उसने कोई बड़ा काम किया हो ।“

            राममिलन भैया से रहा नहीं गया और उन्होंने आश्चर्य से अपनी आँखे फाड़कर कहा “ जो भी हो यह काम उसने बहुत ग़लत किया दूसरे की लुगाई को भगाकर ले जाने में कौनो शान की बात है भैया ? हमरे यहाँ रामायण में ओ ससुरा  रावण भी इही किया रहा जौन की सजा उसे मिली। रामजी ने उसका काम तमाम कर दिया ।अब समझे इसी कारण वहाँ ट्राई की लड़ाई हुई होगी । तो नई बात का है ..ई तो हमरे रामायण जैसी ही कथा है । “ रवीन्द्र ने कहा " हो सकता है भैया ,अलग अलग देशों के महाकाव्यों में भी कुछ कथाएं होती हैं जो एक जैसी लगती हैं ।"

            डॉ.आर्य ने अपनी बात जारी रखी ”राममिलन ठीक कह रहे हैं,  युद्ध का कारण यही था । मेलेनियस जब लौटकर आया  तो हेलेन को अपने महल में न पाकर दुखी हो गया और उसने उसे वापस पाने के लिए ट्रॉय पर आक्रमण की योजना बनाई । उसने यूनान के तमाम कबीलों से इसके लिए मदद मांगी । जब हेलेन और मेलेनियस का विवाह हुआ था उस समय आसपास के तमाम राजा उस अवसर पर पधारे थे और उन्होंने आश्वासन दिया था  कि कोई भी मुसीबत आने पर वे उसका साथ देंगे सो वे सब लोग उसके साथ हो गए । इस तरह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर स्पार्टा की सेना ने ट्रॉय पर आक्रमण के लिए कूच किया ।"

            "अब देखिये यहाँ यह होता है कि देवता भी परोक्ष रूप से इस युद्ध में कैसे हस्तक्षेप करते हैं ।" आर्य सर ने बात आगे बढ़ाई । "ट्रॉय जाते हुए रास्ते में उन्हें अनेक बाधाएँ भी मिलीं जैसे पवन देवता उनके प्रतिकूल हो गए । फिर उन्होंने उन्हें प्रसन्न करने के कुछ उपाय किये और अंततः वे लोग सागर के मार्ग से ट्रॉय  पहुंचे । ट्रॉय  नगर एक पहाड़ी पर स्थित था और उसके चारों ओर पत्थर की दीवार थी । मेलेनियस की सेना ने अपना शिविर सागर तट पर स्थापित किया और अपने सेना नायकों के नेतृत्व में ने ट्रॉय पर आक्रमण कर दिया । ट्रॉय वासियों ने जमकर उनका मुकाबला किया । यूनानी दस वर्ष तक ट्रॉय को घेरे रहे । इस बीच उनके अनेक योद्धा भी मारे गए । स्पार्टा के यूनानियों का प्रमुख योद्धा एकीलीज था जिसका युद्ध ट्रॉय के योद्धा हेक्टर से हुआ । कहते है एकीलीज एड़ी में तीर लगने से मरा, उसकी माँ थेटिस ने जो एक देवी थी बचपन में उसे एड़ी पकड़कर पवित्र स्टिक्स नदी में नहलाया था जिसके कारण एड़ी के अलावा उसका सारा शरीर कठोर बन गया था। ” “ अरे ! “ राममिलन ने कहा “ ऐसी ही कथा हमारे यहाँ दुर्योधन की भी तो है महाभारत में । “

            डॉ. आर्य ने अपनी कथा जारी रखी...“ हो सकता है ,पौराणिक कथायें एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में आती जाती रहती हैं । आगे सुनो .. इस बीच हेलेन का अपहरण करने वाला पेरिस भी मारा गया । क़ायदे से युद्ध बंद हो जाना चाहिए था और ट्रॉय वासियों को उन्हें हेलेन को सौंप देना चाहिए था लेकिन ट्रॉय के निवासी त्रोज़नो के हौसले तब भी बुलंद थे, वे स्पार्टा वासियों को ट्रॉय नगर में प्रवेश करने से रोकते रहे । जब स्पार्टा वासी यूनानी युद्ध में उन्हें नहीं हरा सके तो उन्होंने एक चाल चली ।"

            हम सब आर्य सर की बातें बहुत ध्यान से सुन रहे थे .."स्पार्टा के एक योद्धा ओडीसीयस की सहायता से  उन्होंने लकड़ी का एक विशालकाय घोड़ा बनाया जिसमें सबसे निचले भाग में एक खोखला स्थान रखा गया । इस भाग में यूनानी सैनिक अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर छुप गए । बाकी सभी वापस लौटने का दिखावा करते हुए पास के एक द्वीप पर चले गए  । घोड़ा उन्होंने नगर द्वार पर रख दिया । रात में ट्रायवासी अपने आप को जीता हुआ मानकर और यह सोचकर कि स्पार्टा के सैनिक वापस लौट गए हैं घोड़ा नगर के भीतर ले आए और राग-रंग और जीत के जश्न में डूब गए  । मौका देखकर उसमें छुपे हुए सैनिक बाहर निकले, उन्होंने ट्राय के सारे पुरुषों को मार डाला और स्त्रियों को बन्दी बना लिया तथा पूरे नगर में आग लगा दी । उसके बाद वे विजयोल्लास के साथ वापस स्पार्टा लौट गए  । यह पूरी योजना ओडिसियस नामक वीर योद्धा ने बनाई थी । नेत्रहीन कवि होमर ने अपने महाकाव्य  ‘ओडीसी’ में इसी ओडिसियस के वापस लौटने का वर्णन किया है । ‘इलियड’ में युद्ध की उत्तर कथा और सेना के वापस लौटने का वर्णन है । “

            अजय ने सवाल किया ” लेकिन सर, ऐसा क्या सचमुच में घटित हुआ था ?“ डॉ.आर्य ने बताया “ होमर के महाकाव्य में पौराणिक कथायें,दंतकथाएँ व लोककथायें इतनी  हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक तक लोग इन्हें पूरी तरह काल्पनिक ही मानते रहे लेकिन हेनरिख शिलेमान और आर्थर ईवान इन दो जर्मन पुरातत्ववेत्ताओं ने सन 1868 में  एशियाई कोचक में या वर्तमान टर्की में सागर तट के पास हिसारलिक नामक टीले की खुदाई की है । । यहाँ विभिन्न कालों की अनेक बस्तियों के साथ ट्राय के खन्डहर भी मिले हैं जिनके  अनुसार इतिहासकारों ने ट्राय पर यूनानी हमले की तिथी कोई 1200 ई.पू. तय की है । पर्याप्त प्रमाण न होने के कारण बहुत से इतिहासकार अभी भी इसे ऐतिहासिक घटना नहीं मानते हैं । हाँलाकि पुरावेत्ताओं का काम अभी अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है और इसमें अभी बहुत विवाद है ।“

            “लेकिन सर जी वो हेलनवा का क्या हुआ ? राम मिलन इलाहाबादी ने सवाल किया ।“ अरे यार ,तुम अभी हेलेन पर ही अटके हो ? “ अजय ने कहा ” अरे उसी की वज़ह से तो यह युद्ध हुआ था, बताया तो सर ने वे लोग वापस लौट आये, अब वापस लौटेंगे तो ख़ाली हाथ थोड़े आयेंगे, हेलेन को लेकर ही आयेंगे ना । अगर उसको वापस लाना न होता तो युद्ध काहे होता । “ मतलब हमारी सीता मैय्या जैसी ही कहानी है क्या ? ” राम मिलन ने पूछा ।

            “और क्या” आर्य सर ने कहा “भाई पौराणिक कथाएँ  और महाकाव्यों की कथाएँ तो सभी देशों में लगभग एक जैसी ही हैं ,बस देवी देवताओं,राजाओं और स्थानों के नाम देश-काल के अनुसार अलग अलग हैं ।” “लेकिन सर, कथाओं में जो है वैसा क्या सचमुच में घटित हुआ है ?” अजय ने पूछा । “भाई यही सच और झूठ में अंतर  ढूंढने का काम ही तो हम पुरातत्ववेत्ताओं का है, लेकिन विडम्बना है कि लोग यहाँ भी पूर्वाग्रह से काम लेते हैं ।” आर्य सर ने लम्बी साँस लेते हुए कहा फिर उठने का इशारा करते हुए बोले ” खैर छोड़ो इस विषय पर बाद में बात करेंगे । अब यूनान से वापस अपने देश में आ जाओ और मालवा की ताम्राश्मयुगीन सभ्यता की खोज में टीले पर चलो । ” हम लोग उठे और अपनी नोटबुक्स उठाकर टीले की ओर चल पड़े ।

शनिवार, 30 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दूसरा दिन-दो




मेरा स्नान तो बस पाँच मिनट में संपन्न हो गया । बाहर आते हुए मैंने रवीन्द्र से कहा “ तुम भी जल्दी बाहर आ जाओ । हम लोग नहाने के बाद कुछ देर नदी के आस-पास एक्स्प्लोर करेंगे, अब यहाँ पिरामिड तो मिलेगा नहीं क्या पता चीन की पीली नदी व्हांगहो के तट पर मिली कब्रों की तरह कोई प्राचीन कब्र मिल जाए  ।” “वहाँ शायद दूसरी शताब्दी ईसा  पूर्व की कब्रें मिली हैं ना ? “ रवीन्द्र ने पानी से बाहर आते हुए पूछा ।  “ हाँ ” मैंने कहा “और इनमें जो शव मिले हैं वे चटाईयों में लिपटे हैं , आश्चर्य की बात कि इनके पास भी घडा, अन्य पात्र और खाने पीने की वस्तुएं रखी हैं । मतलब मरणोपरांत जीवन की  मान्यता यहाँ भी थी । इसके अलावा भी बहुत सारी कब्रें मिली हैं जो ज़मीन के नीचे बने मकानों जैसी हैं, इनमें ताबूत के इर्द-गिर्द सोने के ज़ेवर,युद्ध के हथियार,पत्थर और कांसे के बर्तन भी मिले हैं । इसके अलावा उनके आसपास सैकड़ों कंकाल भी मिले हैं । “

            रवीन्द्र ने टॉवेल लपेटते हुए कहा “ इसका कारण यह रहा होगा कि चीन में उस वक्त दास प्रथा थी, और वहाँ भी मिस्त्र के फराओं की तरह मृतक की आत्मा की सेवा करने के लिए मृतक के साथ कई दास दासियों को भी दफ़ना दिया जाता था । कहते हैं ऐसे दासों को दफनाने से पहले उनका सर काट दिया जाता था और हाथ पैर बांध दिए जाते थे । कभी कभी उन्हें जला भी दिया जाता था । पुरातत्ववेत्ताओं को उस काल की हड्डी से बनी एक पट्टिका मिली है जिस पर लिखा है कि “दास को इसलिए जला रहे हैं कि पृथ्वी पर वर्षा हो ।" " ठीक कह रहे हो ।" मैंने कहा "इस क्रूरता के पीछे कारण यही था कि हमारे देश की तरह वहाँ  भी अकाल और बाढ़ के भय से लोग भयभीत हो जाते थे  । वे वायु, वर्षा और नदियों को अपना देवता मानते थे और वे रुष्ट न हों इसलिए या उन्हें प्रसन्न करने के लिए दासों की बलि चढ़ाया करते थे । "

            "यार चीन का ज़िक्र जब भी आता है तो उसकी दीवार की बात होती है । यह दीवार कब बनी ?" अजय का ध्यान हमारी बातों के केन्द्रीय विषय पर नहीं था लेकिन संवाद में चीन शब्द सुनकर उसने यह सवाल किया । मैंने बताया " यह भी उसी दौर की बात है । तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में चीन में कई राज्य थे जिनमे चीन  राज्य सबसे शक्तिशाली था । तत्कालीन राजा ने अन्य राजाओं की आपसी  कलह का लाभ उठाकर समस्त चीन पर अधिपत्य कर लिया और स्वयं 'चिन शिह ह्वान्गति' की उपाधि धारण की । इस समय उत्तर से खानाबदोश 'हूँ' कबीले लगातार आक्रमण करते थे और गाँवो और नगरों को लूट लेते थे । इन कबीलों के आक्रमण से चीन  की रक्षा करने के लिए उसने चार हजार किलो मीटर लम्बी दीवाल बनाई । इसकी चौड़ाई इतनी थी कि  इस पर पांच घुड़सवार एक साथ दौड़ सकते थे ।"

            अशोक नदी के जल में कमर तक पानी में खड़ा था, उसने इतिहासकारों के पुरखे हेरोडोटस का नाम लिया और पानी में डुबकी लगा दी । “जय बाबा हेरोडोटस की ।” वह एक मिनट में ही बाहर आ गया । देर हो रही थी इसलिए उसके बाहर आते ही हमने अपने गीले अंतर्वस्त्र और अन्य प्रक्षालन सामग्री उठाई तथा नदी किनारे एक्सप्लोरेशन की योजना स्थगित करते हुए हम लोग शिविर की ओर निकल पड़े ।

            भोजन स्थल और पाकशाला के निकट डॉ.सुरेन्द्र कुमार आर्य सूर्य की कोमल रश्मियों का आनंद लेते हुए खड़े थे । वे अलसुबह ही नहा धोकर आ चुके थे । उन्होंने हम लोगों के भीगे बदन और भीगे केश देखकर टिप्पणी की “ तुम लोगों को देखकर ऐसा लग रहा है जैसे यूनानी सेना समुद्र से निकलकर ट्राय के युद्ध में शामिल होने आ रही है । “ “क्यों मज़ाक कर रहे हैं सर..” मैंने कहा “ बिना हेलेन के कैसी सेना और कैसा युद्ध ? “ रवीन्द्र ने चुटकी लेते हुए कहा “अबे.... तुझे यहाँ जंगल में हेलेन कहाँ मिलने वाली है ? चुपचाप वस्त्र धारण करो और शीघ्रता पूर्वक अल्पाहार हेतु भाटीजी की पाकशाला में उपस्थित हो जाओ ।” “ ठीक है जैसी पंचों की राय ।” कहकर हम लोग कपडे बदलने के लिए तम्बू के भीतर घुस गए ।

शुक्रवार, 29 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-दूसरा दिन-एक- 3 - वे उन्हें ज़िन्दा दफ़ना देते थे -भाग एक




दंगवाड़ा पुरातात्विक उत्खनन कैम्प की यह हमारी पहली सुबह थी । रात का साम्राज्य समाप्त हो चुका था और वह दिवस के जनतंत्र में सूरज को पहला प्रधानमंत्री घोषित कर वापस अपने देश जाने के लिए तत्पर थी । हम लोग रजाई के भीतर सिमटे हुए  पेट से लगाये अपने घुटनों को सीधा करते हुए हुए गहरी नींद से जागने की कोशिश में थे और दुष्यंत का वह मशहूर शेर झुठला रहे थे .."न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढँक लेंगे ,ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए " कमीज़ क्या हमारे पास तो रज़ाई भी थी । बावज़ूद इसके ठंड से बचने के लिए मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले इस नैसर्गिक उपाय के हम अपवाद नहीं थे । सफ़र की तो अभी शुरुआत ही हुई थी ।

            यही कोई छह बज रहा होगा । सुबह का हल्का सा उजाला किसी झिर्री से हमारे तम्बू रूपी बेडरूम में ताकझाँक करने की कोशिश में था । मैंने समय देखने के लिए उस धुंधलके में घड़ी पर निगाह डाली ही थी कि अचानक डॉ.वाकणकर की गरजती हुई आवाज़ सुनाई दी..” उठो रे सज्जनों.. । ” रवीन्द्र की नींद आदतन पहले ही खुल चुकी थी और वह बिस्तर में पड़ा पड़ा कुनमुना रहा था । उसने


रज़ाई फेंकी और हम सब को हमारी कुम्भकर्णी नींद से हिला हिला कर जगाया । हम लोग मधुमक्खियों की तरह भुनभुनाते हुए अपनी छत्तेनुमा रज़ाईयों से बाहर निकले । अपने बैग से टुथपेस्ट, ब्रश, टॉवेल, अंडरवियर,बनियान प्रक्षालन के सारे ज़रूरी सामान निकाले और नदी की ओर चल पडे । अशोक त्रिवेदी का मामला तो बगैर सिगरेट सुलगाये पिघलता ही नहीं था सो उसके पास यह अतिरिक्त वस्तु । रही बेड टी की बात तो उतने सभ्य हम लोग हुए नहीं थे ।

            चम्बल के पास किसी ज़माने में निर्मित पत्थरों का एक घाट जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौज़ूद  था । मोहनजोदाड़ो के चर्चित स्नानागार के स्थापत्य की कल्पना करते हुए उसे ही हम लोगों ने स्नानागार के रूप में प्रयुक्त करना उचित समझा । शौच के लिए किसी सरकारी शौचालय की व्यवस्था तो थी नहीं, न ही आठ दस लोगों के लिए टेम्पररी शौचालय बनाने का कोई प्रावधान था सो इस प्राकृतिक कार्य को संपन्न करने के लिए हम लोग प्रकृति प्रदत्त शौचालय अर्थात मैदान की ओर निकल गए और वहाँ स्थित झाड़ियों के पीछे अपनी पोज़ीशन सम्भाल ली । घाट पर जाते हुए अपना अपना लोटा ,मग्गा या टिन का डिब्बा साथ ले जाने की हिदायत हमें पहले ही मिल गई थी । घाट पर लौटकर ब्रश करते हुए झाग भरे मुँह से हम लोगों ने नदी के महात्म्य पर चर्चा प्रारंभ की । आज की प्रातःकालीन चर्चा का शीर्षक था बस्तियाँ नदी के पास ही सबसे पहले क्यों बसीं ।

            रवीन्द्र ने एक निगाह चम्बल नदी की अथाह जल राशि पर डाली और कहा " अहा .. कितना सारा जल है नदी में.. नहाने में मज़ा आ जायेगा । अजय ने नहाने की बात सुनते ही अपने शरीर में झुरझुरी पैदा करते हुए अपने बाह्य अंग सिकोड़े और कहा " बाप रे , इतनी सुबह ठंडे पानी से कौन नहायेगा " रवीन्द्र ने कहा " अरे डरपोक , पानी में उतरकर तो देख, सुबह सुबह नदी का जल गर्म रहता है । फिर बिना नहाये ज़िन्दगी का क्या आनंद । अजय ने कहा " यार , आनंद की छोड़ यह बता अगर पृथ्वी पर पानी नहीं होता तो हम लोग कैसे नहाते ?" रवीन्द्र ने कहा " कैसी मूरख जैसी बात करता है ,अगर पृथ्वी पर जल नहीं होता तो यह जीवन भी नहीं होता । वैसे तो हम रोज़मर्रा की बातचीत में 'जल ही जीवन है ' इस वाक्य का हमेशा प्रयोग करते हैं लेकिन हमें यह ख्याल नहीं आता कि अगर पृथ्वी पर जल नहीं होता तो यहाँ जीवन संभव ही नहीं था ।" वो कैसे भाई ? " अजय ने सवाल किया ।

            रवीन्द्र ने जवाब दिया .." यह तो तुम जानते हो कि जीवन का अर्थ शरीर में प्रोटीन की अनिवार्य उपस्थिति है । हमारा शरीर कई प्रकार के एमिनो एसिड्स या प्रोटीन से बना है जो जीवन का एक प्रमुख कारण है  और यह जीवन पूरे सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही है । अन्य किसी ग्रह पर जीवन नहीं है । हमारे सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही जीवन इसलिए संभव  हो सका कि प्रोटीन की एंजाइमी किया के लिए मुक्तजल की उपस्थिति अनिवार्य थी और वह पृथ्वी पर पहले से ही मौजूद था । इस तरह जल जीवन के निर्माण का पहला तत्व है  ।  हमारी पृथ्वी सूर्य से न अधिक दूर है न अधिक पास,  इस वज़ह  से यहाँ वाष्पीकरण के  पश्चात भी काफी जल शेष रह जाता है । यही कारण है कि  वैज्ञानिक चन्द्रमा और मंगल  पर जीवन की सम्भावनाओं से पहले पानी की तलाश कर रहे हैं ।"

            अजय सुबह सुबह इतना वैज्ञानिक प्रवचन सुनने के लिए तैयार नहीं था । उसने अपने दोनों कानों में उँगलियाँ  ठूंस ली । मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया । फिर मैंने रवीन्द्र की  बात का समर्थन करते हुए कहा " तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो । प्रारम्भिक मनुष्य के जीवन का विस्तार भी इसी वज़ह से जल स्त्रोतों के निकट हुआ । इसका कारण यही था  कि अन्य सुविधायें उपलब्ध होने के बावज़ूद जल के स्त्रोत का निकट होना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि जल जीवन के लिए  सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है । प्राचीन समय में प्रारंभिक बस्तियाँ जलस्त्रोत के निकट ही बसीं ।"

            "लेकिन भाई ,बस्तियाँ तो नदियों से दूर भी बसी हुई मिलती हैं ?" अजय हमारे वार्तालाप से उतना भी निर्लिप्त नहीं था जैसा कि मैं सोच रहा था  । "हाँ ऐसा इसलिए हुआ ।" मैंने अजय से कहा  " कि  कालांतर में जब नदियों का प्रवाह दूर होता गया तो उसके अनुसार बस्तियाँ भी दूर होती गईं  । आज भी उत्खनन में अनेक बस्तियों में प्राप्त वस्तुओं पर पानी के निशान मिलते हैं ,साथ ही चिकने गोल पत्थर या नौका जैसे अनेक प्रमाण भी मिलते है जिन्हें देखकर  ज्ञात होता है कि पहले कभी यहाँ नदी रही होगी । यह बात ध्यान में रखने लायक है कि प्रारंभिक सभ्यताएं  सिन्धु नदी या दज़ला फरात और नील नदी के कांठे में बसी हुई थीं । आज भी तुम देख सकते हो कि विश्व के तमाम बड़े शहर नदियों के किनारे ही बसे हुए हैं ।"

            बात चल ही रही थी कि राममिलन भैया आते हुए दिखाई दिए । “ अरे तुम कहाँ चले गए थे भाई ? ”अशोक त्रिवेदी ने उनसे प्रश्न किया । “यहाँ हम लोग नहाने की तैयारी में हैं और तुम्हारी लोटा परेड अभी तक चल रही है ?” “भाईसाहब, आप लोग तो बेशरम हो, कहीं भी निपट लेते हो ..मुझे तो आड़ के लिए  कोई पिरामिड जैसी चट्टान चाहिये थी । ” राममिलन ने कहा । हम लोग हँसने लगे “ अच्छा तो अब पिरामिड का यही उपयोग बचा है ?”  अजय ने पूछा । ”तो मिला कोई पिरामिड ?” मैंने हँसकर कहा ”भाई ,यहाँ कहाँ मिलेगा,सारे पिरामिड तो मिस्त्र में हैं यहाँ तो बस चम्बल की घाटियाँ मिलेंगीं । ”
            बात नदी से निकलकर अब पिरामिड पर आ गई थी । हम लोग भले ही प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्यार्थी हैं लेकिन समकालीन वैश्विक इतिहास जानना भी हमारी अनिवार्यता है सो पिरामिड्स के बारे में भी हम लोग पढ़ ही चुके थे । अजय ने मिस्त्र के पिरामिडों का ज़िक्र करते हुए सवाल किया  ”यार, यह खुफू का पिरामिड कबका है ?” सारे छात्रों में घटनाओं का काल सबसे अधिक मुझे ही याद रहता है,मैंने बताया..”लगभग छब्बीस सौ ईसा पूर्व का ।"

            "आश्चर्य है न..," अजय ने ऑंखें फाड़ते हुए कहा .." इतने वर्षों से यह पिरामिड जस का तस खड़ा है .. मतलब यह तो ताजमहल से भी काफी पहले का है ।" रवीन्द्र ने कहा .."अरे ताजमहल की और ख़ुफु के पिरामिड की कैसी तुलना, दोनों का काल और स्थापत्य बिलकुल अलग अलग हैं । ताजमहल तो अभी इसी सहस्त्राब्दी का है ।" " तुलना की बात नहीं है भाई " अजय ने कहा " आख़िर है तो दोनों कब्र ही । लेकिन यह भी हैरानी  की बात है कि पहले के राजा लोग अपनी कब्र के लिए इतनी विशाल इमारतें बनाते थे । मरने के बाद भी भला कोई देख पाता है कि उसकी कब्र कैसी है ।"

            मैंने कहा " हाँ मरने के बाद तो वाकई कोई नहीं देख पाता कि उसकी देह का क्या हुआ ,उसे कहाँ दफनाया गया इसीलिए प्राचीन मिस्त्र में वहाँ के राजाओं यानि फराओं द्वारा जीते जी अपनी कब्र का निर्माण किया जाता था । उस समय तक अंतिम संस्कार की विधियाँ तय हो चुकी थीं और मृत्यु  के बाद जीवन जैसे विषयों पर भी विचार होने लगा था । इन फराओं के बारे में कहा जाता है कि ये शासक बहुत ही क्रूर होते थे । वे स्वयं को देवताओं के समकक्ष मानते थे और मृत्यु के बाद भी समस्त सुखों की कामना करते थे । उनकी ऐसी मान्यता थी कि कब्र में दफनाने के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब वे जीवित हो उठेंगे और समस्त सुखों का उपभोग करेंगे इसलिए उनकी कब्र में उनके साथ पानी, शराब, खाने पीने की वस्तुएं,फल,अनाज ,बिस्तर, अस्त्र-शस्त्र आदि रख दिया जाता था ।"

            "अजीब पागल राजा थे भाई " अजय ने कहा " अरे यह सब खाने-पीने की वस्तुएं तो कुछ ही दिनों में ख़राब हो जाती होंगी और वस्तुयें क्या खुद उनके शव भी सड़ जाते होंगे और बदबू आने लगती होगी । सड़ी हुई लाश की बदबू की कल्पना करते हुए अजय ने बहुत अजीब सा मुँह बनाया ..'आक़' ..जैसे उल्टी आ रही हो । मैंने कहा " भाई, शव को सड़ने से बचाने के लिए तो वे उन पर विशेष प्रकार का लेप लगाते थे लेकिन खाद्य वस्तुओं का वे कुछ नहीं कर सकते थे ।" "और क्या," अजय ने कहा " आज का ज़माना होता तो वे पिरामिड के भीतर बड़ा सा फ्रिज भी रख देते ।" अजय की  बात सुनकर रवीन्द्र पेट पकड़कर हँसने लगा .."तू भी यार जाने क्या क्या सोच लेता है ..अरे तब तो बिजली की खोज भी नहीं हुई थी फ्रिज क्या रेत से चलता ? "

            मैंने बात को गंभीर मोड़ देते हुए कहा " दरअसल इसके पीछे मरणोपरांत जीवन की एक ऐसी कामना थी जिसे उनकी सम्पन्नता पोषित करती थी । वे राजा थे इसलिए ऐसा कर सकते थे, धर्म और सत्ता दोनों उनके साथ थे ।अपनी मान्यताओं के वे ही नियामक थे । पुरोहित वर्ग भी उनके साथ था । ग़रीब जनता के लिए तो ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल था और यही नहीं, शासकों की मृत्यु पश्चात जीवन की यह मान्यता उनसे एक ऐसा क्रूर कर्म करवाती थी जिसके बारे में आज हम सोच भी नहीं सकते हैं ।

            "ऐसा क्या करते थे भाई वे ?" अजय ने सवाल किया । मैंने कहा " उनका मानना था कि मृत्यु के कुछ समय बाद जब वे फिर से जीवित हो उठेंगे तब समस्त राजसी सुविधाओं का उपभोग करने के लिए  अर्थात खिलाने -पिलाने, नहलाने-धुलाने आदि के लिए और उनके मनोरंजन के लिए उन्हें सेवकों की भी आवश्यकता होगी अतः  कई बार तो उनके साथ जीवित सेवकों को, नर्तकियों आदि को भी पिरामिड में बन्द कर दिया जाता था ताकि उनके पुनः जीवित होने पर वे उनकी सेवा कर सकें ।"

            "ओह , यह तो गज़ब की क्रूरता है " रवीन्द्र ने कहा " उन बेचारे ग़रीब सेवकों का क्या दोष, इस तरह ज़िन्दा दफ़नाकर तो उन्हें जीते जी मार दिया जाता था ।" मैंने कहा .." इनकी क्रूरता के और भी किस्से हैं । इन फराओं ने अपने साम्राज्य में अनेक सभ्रांत लोगों को विभिन्न प्रदेशों का शासक नियुक्त कर रखा था । ये अधिकारी लोग सम्पति छीनने व आम जनता को यंत्रणाएँ देने का कार्य किया करते थे तथा अपनी कठोरता व   क्रूरता की डींगें हांका करते थे । उनके इस कार्य के बदले उन्हें बड़े बड़े पद, जागीर व ज़मीनें मिला करती थीं । पिरामिडों के बाहर खडी नारसिंही मूर्तियाँ 'स्फिंक्स' भी इन्ही फराओं की निरंकुश सत्ता का प्रतीक है । इन विशाल मूर्तियों में आधा भाग मनुष्य का और आधा सिंह का है जो यह बताता है कि उनकी ताकत इतनी है कि वे कुछ भी कर सकते हैं । “

            अचानक मुझे महसूस हुआ कि नहाने हेतु तत्पर कपड़े उतारकर सिर्फ बनियान पहने हुए ठंड में ठिठुरते अपने मित्रों को इससे ज्यादा भाषण देना ठीक नहीं है सो मैं खामोश हो गया । मुझे चुप होता देख अजय ने चुटकी ली .."मुझे तो ऐसा लगता है हमारे आज के जो सरकारी अधिकारी हैं उनमें भी फराओं के उन अधिकारियों के संस्कार आ गए हैं  ।" "नो कमेन्ट" मैंने मुंह पर उंगली रखकर अजय को चुप रहने का संकेत किया ।“चलो चलो जल्दी नहाओ नहीं तो हमारे ‘फराओ’ नाराज़ हो जाएँगे । “रवीन्द्र ने अंततः बातों को विराम देते हुए तुरंत अपना फर्मान ज़ारी किया । “ठीक है ।” मैंने कहा । फिर हम लोग नदी में उतर गए और अपने शरीर पर पानी का लेप लगाने लगे उसी तरह जैसे फराओं के मुर्दा शरीरों पर रसायन का लेप लगाया जाता था फर्क इतना था कि हमारे जीवित शरीर पर जीवन देने वाले जल का लेप था जो हमें कई साल जीवित रखने वाला था । 
आपका- शरद कोकास

गुरुवार, 28 मई 2009

एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी-पहला दिन-चार- हरक्युलिस और हनुमान-भाग दो

पिरामिड की आड में..

लेकिन सोने की हमारी कोशिश असफल रही । वैसे भी ठण्ड का समय था और हम लोग नौ बजे लगभग बिस्तरों में घुस गए थे उस हिसाब से ज़्यादा समय भी नहीं हुआ था । मैंने कहा ‘चलो समय काटने के लिए  जिस तरह वेताल पच्चीसी में राजा विक्रमादित्य को उसके कंधे पर लदे हुए बेताल ने कहानियाँ सुनाई थीं मैं भी तुम लोगों को बेताल की तरह एक कहानी सुनाता हूँ । “ रवीन्द्र बोला ” भैये, पहले तय कर ले हम में से विक्रमादित्य कौन है जो तेरी कहानी ढंग से सुनेगा क्योंकि  बाद में तो तू उसीसे सवाल पूछेगा । अशोक ने उसका समर्थन करते हुए कहा " और हाँ बेताल तू ही बन हम लोग तो फ़िलहाल ज़िन्दा हैं ।” “ चुप बे..बड़ा आया ज़िन्दा कहींका " अजय ने उसे झिड़कते हुए कहा " ये जीना भी कोई जीना है ..


मैंने दोनों की ओर मुस्कुराकर देखा और कहा " भाई, जिंदा-मुर्दा बात में तय कर लेना फिलहाल तो यह कहानी सुनो । मैंने देखा मित्रों की आँखों से बच्चों सी उत्सुकता झाँक रही थी । ”चलो ." मैंने कहा ..."मैं तुम्हें यूनान ले चलता हूँ । योरोप और बाल्कन प्राय:द्वीप के दक्षिण में इजियन सागर से लगा प्रदेश है यूनान, वही प्रदेश जिसे वर्तमान में ग्रीस कहते हैं । यहाँ दक्षिण यूनान के पेलोपोनेसस क्षेत्र में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्खनन किया गया जिससे माइसीनी नगर में प्राचीन सभ्यता का पता चला । इस तरह हमें यूनान के इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त हुई । पुरातात्विक सामग्री के अलावा यूनान के प्राचीन इतिहास के बारे में जानने का स्त्रोत वहाँ की पौराणिक कथायें भी हैं । यद्यपि विश्व की अधिकांश पौराणिक कथाओं की भांति इन कथाओं के नायक व घटनायें भी काल्पनिक हैं लेकिन इन कथाओं में प्राचीन यूनानियों के काम धन्धे,औज़ारों, रीति -रिवाज़ों आदि के बारे में बहुत सारी जानकारियाँ मिलती हैं । यह यूनानी  किन देशों की यात्रायें करते थे और किन किन देवी-देवताओं में विश्वास करते थे यह जानकारी भी इनमें  है।

“तू कहानी सुना रहा है या यूनान का इतिहास ? ” अजय जोशी ने ऊबकर पूछा । रवीन्द्र ने उसे छेड़ते हुए कहा “अबे गधे ,इतना भी नहीं जानता कि कहानी और इतिहास में फर्क होता है ।“ । “ जानता हूँ यार, इसीलिए तो कहा ..लेकिन यह इतनी देर से बोर कर रहा है.. ठीक है ..चल आगे सुना...।  “ अजय बोला । “ चलो ठीक है.." मैंने सकुचाते हुए कहा " भाई हम लोग पुरातत्व के छात्र हैं अब हिंदी के कथाकार की तरह कहानी थोड़े ही सुना सकते हैं । चलो फिर भी कोशिश करता हूँ ,तुम्हें  हर्क्यूलिस या हेराक्लीज़ की कहानी सुनाता हूँ ।“

            " प्राचीन यूनान में अनेक देवी देवता हुए हैं जिनमें हेराक्लीज़ नामक एक प्रसिद्ध देवता था । जैसे कि होता आया है यूनान के कई देवी देवता कुछ बदले हुए नामों के साथ रोम में भी पाए जाते हैं अतः इस तरह यूनान का हेराक्लीज़ रोम का देवता हरक्युलिस हो गया । हरक्युलिस के बारे में कहा जाता है कि वह आधा देवता और आधा मनुष्य था और उसके पास अद्भुत शक्तियाँ थीं । यूनान और रोम के लोग पराक्रमी हर्क्यूलिस के कारनामों को बहुत पसन्द करते थे । ऐसा ही उसका एक कारनामा मैं तुम्हें सुनाता हूँ ।"

            "यूनान में एक राजा था जिसका नाम ऑजियस था । यह राजा बहुत संपन्न था ,उसका राज्य भी काफी विशाल था और उसकी  गौशाला में पाँच हज़ार से अधिक गाय और बैल थे । अब इतनी बड़ी गौशाला होगी तो उसके लिए गौसेवक भी उतने ही होने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं था । उसने सारे गौसेवकों को युद्ध और दूसरे कामों में लगा दिया जैसे कि वे राजस्व की वसूली भी करने लगे । स्वाभाविक था कि गौशाला की व्यवस्था बिगड़ गई और वहाँ कई दिनों तक सफाई व्यवस्था ठप्प हो गई ।"

            "एकदम सही बोला भाई " अजय ने कहा " हमारे यहाँ भी जब सफाई कर्मचारी हड़ताल करते हैं तो ऐसे ही होता है ।" मैंने कहा "ठीक है आगे सुनो....इसका परिणाम यह हुआ कि गौशाला गोबर से भर गई, उसे साफ करने वाला कोई ना था । तब राजा  ऑजियस को हरक्युलिस की याद आई । अब वह देवता भी था और मनुष्य भी और शक्ति संपन्न तो था ही ।  हरक्युलिस ने गोबर के इस पहाड़ को साफ़ करने की एक योजना बनाई । उसने अपनी शक्ति से सबसे पहले पास की दो नदियों पर चट्टानों से एक बांध बना दिया, जल्द ही नदियाँ ऊपर तक भर गईं और फिर उसके बाद उसने वह बांध एक झटके में तोड़ दिया, बस पानी की तेज़ धार छूटी और सारा गोबर अपने साथ बहा ले गई ।”

            “तू भी यार सोते समय क्या गन्दी गन्दी  कहानी सुना रहा है..तेरे दिमाग में भी लगता है यही भरा है ” अजय ने हँसते हुए कहा । “ सुनो तो ..“ मैं अपने प्रवाह में था “ यह हरक्युलिस के साथ अनेक बार हुआ कि उसे अपनी शक्ति की परीक्षा देनी पड़ी । ऐसे ही एक बार क्या हुआ कि यूनान के राजा यूरीस्थेयस ने उससे कहा कि मैं तुम्हें शक्तिमान तब मानूंगा जब तुम मेरे लिए सोने के तीन सेब लेकर आओगे । राजा का आदेश पाकर  हरक्यूलिस सोने के सेब की खोज में निकला । यह सेब यूनान से पश्चिम में इजियन महासागर के किनारे या पृथ्वी के सुदूर उत्तर में  किसी बाग में किसी पेड़ पर लगे थे जो देवताओं की संपत्ति थे  जहां सौ सर वाले दैत्य उनकी रक्षा करते थे ।"

            "हरक्युलिस का मार्ग आसान नहीं था । सबसे पहले उसे रास्ते में किक्नोस नामक दैत्य से लड़ना पड़ा । उसे परास्त कर वह आगे बढ़ा जहाँ जल देवता नीरियस से उसकी मुठभेड़ हुई । नीरियस के बारे में यह मशहूर था कि वह अपने शरीर को चाहे जितना बड़ा या छोटा कर सकता था । " मतलब सुरसा राक्षसी की तरह ? राममिलन भैया बहुत ध्यान से कहानी सुन रहे थे । " बिलकुल " मैंने कहा " लेकिन उसे भी हरक्युलिस ने परास्त कर दिया । आगे बढ़ने पर उसे समुद्र के देवता पोसायडान का बेटा एन्तेयस मिला जिसके बारे में मशहूर था कि धरती पर पाँव रखते ही उसके शक्ति दुगनी हो जाती थी । सो हरक्युलिस ने युक्ति लगाईं और उसे हवा में उछाल उछाल कर ही मार डाला ।

        "फिर क्या हुआ ? अभी और राक्षस बचे हैं क्या " रवींद्र ने पूछा । "नहीं" मैंने कहा " उसके बाद वह काकेशस पर्वत पर आया जहाँ प्रोमेथ्युस बंदी था । यह वही प्रोमेथ्युस था जो मनुष्यों के लिए देवताओं से अग्नि चुराकर लाया था और उसे ज्यूस देवता ने इस बात की सजा देते हुए एक चट्टान से बांध दिया था । जहाँ एक गरुड़ रोज आता था और उसके जिगर को थोड़ा सा खा जाता था । हरक्युलिस ने प्रोमेथ्यूस को ज़िगर खा जाने वाले भयानक गरुड़ दैत्य से भी मुक्ति दिलाई । इसके बदले में प्रोमेथ्युस ने उसे सेब के बाग़ तक पहुँचने का रास्ता भी बताया और यह भी बताया कि एटलास तुम्हें धोखा देगा सो सावधान रहना । इस तरह हरक्युलिस अनेक दैत्यों और देवताओं से लड़ते हुए आखिर उस बाग़ तक पहुँचा ।  हरक्युलिस जब वहाँ पहुँचा तो उसने देखा कि वहाँ वीर अटलांटिस या एटलस उस बाग़ में सोने के सेब की रक्षा कर रहा था । वह अपने काँधे पर आकाश को थामे हुए था और पृथ्वी पर खड़ा था । अब उस समय यूनानियों को आकाश की वास्तविकता तो मालूम नहीं थी । वे सोचते थे कि आकाश पृथ्वी पर गिर रहा है और वीर अटलांटिस उसे अपनी पीठ पर थामे हुए है जिसकी वज़ह से पृथ्वी बची हुई  है 

            “इसी के नाम पर अटलांटिक महासागर का नाम पड़ा है ना ? ” अशोक ने पूछा “ हाँ । “ मैंने कहा “ अब आगे सुनो । हरक्यूलिस ने वीर अटलांटिस से सेब की मांग की और उसे बताया कि राजा यूरीस्थेयस  के सामने उसे अपनी शक्ति की परीक्षा देनी है । एटलस के मन में विचार आया कि वह स्वयं ही सोने के सेब लेकर राजा के सामने क्यों न चला जाए ताकि वह खुद को हरक्युलिस से ज़्यादा बड़ा वीर साबित कर सके । उसने हरक्युलिस से कहा 'मैं सेब तोड़ता हूँ तब तक तुम अपने कंधे पर यह आकाश थामे रखो ।' जितनी देर में अटलांटिस ने सेब तोड़ा हरक्यूलिस ने अपनी पीठ पर आकाश को थामें रखा। यूनानी कहते हैं कि आकाश का वज़न इतना अधिक था कि हरक्यूलिस के पाँव घुटनों तक पृथ्वी में धंस गए  ,बोझ से उसकी हड्डियाँ चरमराने लगीं और पसीने की नदियाँ बहने लगीं । “

            "फिर क्या हुआ यार ?" अजय ने उत्सुकता से पूछा । " बस फिर क्या होना था ।" मैंने कहा " एटलास सेब तोड़ लाया और उसे लेकर जाने लगा । हरक्युलिस समझ गया कि उसके साथ धोखा हुआ है । लेकिन उसे प्रोमेथ्युस ने पहले ही बता दिया था कि एटलास तुम्हारे साथ ऐसा करेगा सो उसने एटलास से कहा ' भाई , मेरे कन्धों में बहुत दर्द हो रहा है वे छिल न जाएँ इस लिए मैं कंधे पर कोई नर्म पैड रखना चाहता हूँ ,सो एक मिनट के लिए तुम यह भारी भरकम आकाश थाम लो, मैं फिर वापस अपने कंधे पर ले लूँगा ।एटलस उसकी बातों में आ गया और उसने फिरसे आकाश अपने कंधे पर ले लिया । बस हरक्युलिस को मौका मिला गया और वह सोने के सेब लेकर भाग गया ।

            “वाह ! वाह ! अच्छी कहानी है ..लेकिन सारे वीर यूनान में ही पैदा नहीं हुए हैं " हमारे हनुमान भक्त मित्र पंडित राममिलन शर्मा इलाहाबादी बहुत देर से हरक्युलिस  का किस्सा सुन रहे थे और मन ही मन नाराज़ हो रहे थे । उन्होंने गुस्से से कहा " होगा हरक्युलिस बहुत बड़ा वीर लेकिन हमरे यहाँ के वीर हनुमान भी उनसे कुछ कम नहीं हैं , उन्होंने तो सूरज को निगल जाने और संजीवनी बूटी का पहाड़ उठा लाने जैसे बड़े बड़े कारनामे किये हैं  उनको भी ऐसे ही राक्षस रास्ते में मिलते हैं और लंका जाते समय ऊ सुरसा भी मिलती है.. ई हर्क्यूलिसवा भी  तो उन्हीं का यूनानी  अवतार  है । ये सब कथाएँ हमरे यहाँ से ही ओ लोग चोरी किये हैं ।"

     मैंने कहा ” हाँ राममिलन भैया ,यूनानियों की तरह पुराणकथायें तो हमारे यहाँ भी हैं और उनमें भी अनेक किस्से हैं जो दुनिया की अनेक सभ्यताओं के किस्सों जैसे ही हैं । और कई पात्र तो हमारे मिथकीय पात्रों से मिलते जुलते भी हैं जैसे उनका हरक्युलिस तो हमारे हनुमान, उनका ज्यूस और हमारा इंद्र । जैसे हमारे यहाँ गांधारी के आँख की पट्टी खोलकर देख लेने पर दुर्योधन के शरीर के वज्र के हो जाने की कथा है वैसे ही उनके यहाँ एकिलिस की माँ द्वारा उसके शरीर को वज्र करने के लिए उसे स्टिक नामक नदी में डुबोये जाने की कथा है ।"

            “ भाई अब तेरी कथा बाद में सुनेंगे ।" रवींद्र ने कहा । " अब नींद आ रही है ..लेकिन  यार यह योरोप ,बाल्कन द्वीप, पेलोपोनेसस ..लगता है अगली बार तेरी बातें समझने के लिए  प्राचीन विश्व का नक्शा लेकर बैठना पड़ेगा “। " बिलकुल ।" मैंने कहा । वैसे भी रात काफी हो चुकी थी  और नींद से सबकी ऑंखें  बोझिल हो रही थीं । बिजली के बल्ब से निकलने वाली रोशनी के ड्यूटी आवर्स भी समाप्त हो चुके थे । पूस की ठंडी हवा तम्बू के छेदों से भीतर प्रवेश कर रही थी ।

            जाने क्यों मुझे इस ठण्ड में इन काल्पनिक कहानियों के बरक्स यथार्थ के धरातल पर लिखी प्रेमचंद की कहानी ‘ पूस की रात ‘ याद आ रही थी । इससे पहले कि हम लोगों की हालत ठण्ड में कांपते किसान हल्कू की तरह हो जाए हम लोगों ने सो जाना उचित समझा वैसे भी अब कोई कहानी सुनाने का वक्त नहीं बचा था और आज के लिए काफी कहानियां हो चुकी थीं  । अंततः मैं उस हवा में पृथ्वी के पहले मनुष्य की देहगन्ध महसूस करता हुआ जाने कब नींद के आगोश में चला गया ।


शनिवार, 23 मई 2009

हिस्ट्री नेवर रीपीट्स इटसेल्फ़


इतिहास अपने आप को नहीं दोहराता
पता नहीं क्यों समाज में एक अवधारणा पनप गई है कि इतिहास की पुनरावृति होती हैयह अंग्रेजी के वाक्य history repeats itself का जस का तस अनुवाद हैहम इन्हे जीवन में बहुत छोटी छोटी जगहों पर लागू करते हैं जैसे यदि बाप अपने छात्र जीवन में किसी कक्षा में फेल हुआ हो और उसका बेटा भी फेल हो जाये तो कहा जायेगा history repeats itself यदि बाप शराबी हो और उसका बेटा उससे भी बढकर शराबी निकले तो यही कहा जायेगा,यदि किसी पीढी में कोई दुर्घटना हो जो अगली पीढ़ी मे भी घटित हो तब भीअक्सर गलत जगहों पर हम यह वाक्य कोट करते हैं परंतु ऐसा नहीं है.यदि इतिहास मे कुछ गलत हुआ है तो ज़रूरी नहीं कि भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति हो उदाहरण के तौर पर मुहम्मद-बिन-तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद रिवर्तित की जिसकी वज़ह से सैकडों लोग बेघर,बीमार व परेशान हुए और अंतत उसे वापस राजधानी दिल्ली लाना पडा। इसी पराक्रम की वज़ह से उसे विक्षिप्त की उपाधी मिलीलेकिन इसके विपरीत बहुत सारे सकारात्मक राजधानी परिवर्तन हुए जैसे कलकत्ता से दिल्ली, बर्लिन से बॉन और वर्तमान मे नये प्रदेशों की राजधानियाँदरअसल इतिहास में जो कुछ भी घटित हो चुका है वह बीता हुआ पल है जो दोबारा नहीं आता और आता भी है तो उसी रूप मे कतई नहींजैसे हम हर बार साँस लेते हैं लेकिन एक बार छोडी हुई साँस में जो वायु होती है क्या वह अगली साँस मे उसी रूप में वापस आती है?नदी में जो जल एक बार बह जाता है क्या वह उसी रूप में वापस आता है?यह तो समय की बात है रिसायकल होकर कोई भौतिक वस्तु भी उसी रूप में वापस नही आतीइसलिये जो बीत गया है उससे सबक लेने की ज़रूरत है ताकि हम भविष्य में गलती न करें हमारे पिता ने या उनके पिता ने अपने बच्चों के लिये जो कुछ किया क्या हम उससे बेहतर नही करना चाहते?यही है इतिहास से सबक लेना जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे पुरोगामी होने के बजाय और भी पीछे चले जाते हैं फिर सबक लेना ही काफी नही है गलत सबक लेने से भी बचना ज़रूरी हैसही सबक क्या है और गलत सबक क्या इसका निर्धारण आपका विवेक और इतिहासबोध ही कर सकता हैवैसे हीगेल का कथन है किइतिहास की सबसे बडी सीख यही है कि इतिहास से कोई सीख नही लेताहीगेल ने उसके देश जर्मनी ने और उसके अनुयायियों ने इतिहास से कोई सीख नही ली उसका क्या हश्र हुआ आप जानते हैंहमारे देश में भी बहुसंख्य लोग इतिहास से कोई सबक नहीं लेते लेकिन इतिहास सिर्फ उन्हे याद रखता है जो उससे सही सबक लेकर कुछ नया रचते हैं,कुछ नया सृजन करते हैं,वे ही नवनिर्माण करते हैआप भी इतिहास बोध से लैस होकर उनमें शामिल हो सकते हैं
शरद कोकास

बुधवार, 13 मई 2009

बिना बाप का भी कोई हो सकता है??

डा.लालबहादुर वर्मा अपनी पुस्तक "इतिहास के बारे में" में लिखते हैं "कोई भी फॉर्म लें, उसमें प्रार्थी के नाम के बाद के दो तीन कालम महत्वपूर्ण होते हैं, बाप का नाम जन्मतिथि पता आदि .हमें तो महज़ प्रार्थी से मतलब है तो फ़िर अन्य विवरणों की क्या आवश्यकता ?पर हम जानते हैं की बिना बाप के पहचान ही पूरी नही होगी .हमारी पहचान के लिए हमारी जन्मतिथि और पता भी ज़रूरी है यानि हमें काल( जन्मतिथि )और देश (पता) में स्थापित करके अपने अतीत यानि बाप से जोड़ा जाता है ताकि हमारी शिनाख्त हो सके. इन तीन बातों से जुड़े बगैर किसी का परिचय और अस्तित्व पहचान नही बन सकता. "
चलिए मान लेते हैं आप को पिता के नाम की ज़रूरत नही है. कहीं कोई फिल्मी डायलॉग भी याद आ रहा होगा "बाप के नाम का सहारा कमज़ोर लोग लेते हैं" लेकिन यह सच है की पिता का अस्तित्व तो होता है .भविष्य में यदि बिना बाप के संताने उत्पन्न होने लगे तब भी मनुष्य का पूर्वज तो मनुष्य ही रहेगा और उससे जुडा रहेगा उसका इतिहास.अपने अतीत को जानने में हर किसी को सुख मिलता है लेकिन हमें अपना पूरा अतीत कहाँ मालूम रहता है हमें तो केवल वही बातें याद हैं जो हमारे होश संभालने के बाद की हैं.एक या दो साल की उम्र में जब हम बिस्तर से लुढ़क कर गिर पड़े थे या मम्मी पापा या चाचा की गोद में सू-सू कर देते थे हमें कहाँ याद है ?यह बातें तो हम हमारे माता पिता व घर के अन्य लोग ही बताते हैं कि कब हमने खड़े होना सीखा ,कब हमने चलना सीखा ,कब हमने अपने हाथ से निवाला उठाकर खाना सीखा .हमारे माता- पिता ने यह कब सीखा, यह हमें दादा -दादी या नाना- नानी बता सकतें है लेकिन हमारे दादा -दादी ने यह कब सीखा और उनके दादा- दादी ने कब, यह हमें कौन बताएगा।
दरअसल अमीबा से लेकर मनुष्य होने की प्रक्रिया तक हर पीढी अपनी अगली पीढी को यह ज्ञान देती आई है और इसमे हजारों वर्ष लगे हैं .यदि इसका माईक्रो संस्करण देखना हो तो बच्चे के जन्म से लेकर उसके पांच-छः वर्ष तक की आयु की गतिविधियाँ देख लीजिये इतने वर्षों में उसे खाना-पीना,चलना,बैठना,बोलना, कपडे पहनना सब सिखा दिया जाता है.कह सकते हैं की हज़ारों साल चलने वाली फ़िल्म का यह छोटा सा ट्रेलर है।
लेकिन ऐसा है तो हमें अपना इतिहास जानने से हासिल क्या होगा ?सीधी सी बात है अतीत में हमसे जो गलतियाँ हुई हैं उन्हे जाने बगैर हम गलतियों से बचेंगे कैसे?आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है यह बात मालूम होने के लिए क्या हम हाथ जलाकर देखेंगे?यह सबक हमें इतिहास ने ही सिखाया है।
अगर इतिहास की ज़रूरत को हमने न समझा होता तो हम आज भी उसी आदिम अवस्था में निर्वस्त्र वन में घूम रहे होते .खैर छोडिये ज़्यादा पीछे क्यों जायें कम्प्यूटर वैज्ञानिक यदि कम्प्यूटर के इतिहास से वाक़िफ न होते तो और उस आधार पर शोध नही करते तो आज आप चौथी और पांचवी पीढी के कम्प्यूटर के बजाय,पहली पीढी के बडे कमरे के आकार के बड़े से कम्प्यूटर पर मेरा यह लेख पढ़ रहे होते.फिलहाल इतना ही।

आपका शरद कोकास