मित्रों , यह डायरी काफी दिनों से स्थगित थी , इसे फिर से आगे बढ़ा रहा हूँ . यह डायरी उन दिनों की है जब मैं प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व का स्नातकोत्तर का छात्र था , और हम लोग उज्जैन के निकट दंगवाडा नामक स्थान पर उत्खनन के लिए गए थे . इस भाग में मैं अपने मित्रों को अजंता एलोरा यात्रा का वर्णन सुना रहा हूँ . ग्यारह दिनों की डायरी पढ़ने के बाद अब पढ़िए बारहवें दिन की डायरी .
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – बारहवाँ दिन – एक
एक पुरातत्ववेत्ता की डायरी – बारहवाँ दिन – एक
सुबह सुबह रवीन्द्र ने मुझसे
कहा “ यार तेरी डायरी में मज़ा आ रहा है । अभी एलोरा और औरंगाबाद की यात्रा भी बाक़ी
है ना ? “ “ बिलकुल । “ मैंने कहा ...” आज रात चलते हैं ना आगे की सैर के लिए । आज
का दिन उसी तरह बीत गया जैसे कि पिछले दिन बीते थे । कोर्स की और परीक्षा की ज़रूरत
के अनुसार जितना ज्ञान हमें चाहिये था उतना हम अर्जित कर चुके हैं और अब यहाँ मन
भी नहीं लग रहा है । वैसे तो हमें यहाँ एक माह रहना था लेकिन आने में देर हो
गई और थ्योरी की तैयारी भी करनी है जिसके
लिए समय बहुत कम बचा है । इसलिए हम लोग यहाँ से जल्दी जाने की फिराक में हैं । फ़रवरी
की समाप्ति के साथ साथ हमें वापस उज्जैन पहुँचना है । हमें पता है कि उत्खनन कार्य काफी समय तक चलेगा सो
परीक्षा के बाद फिर कभी आ जाएँगे यह विचार कर हम लोग वहाँ से जाने का मन बना रहे
हैं । फिर लौटकर अन्य विषयों की तैयारी भी तो करनी ही
है वरना परीक्षा में अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे और अच्छे नम्बर नहीं मिलेंगे तो
अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और अच्छी नौकरी नहीं मिली तो जीवन इसी तरह व्यर्थ बीत
जाएगा ।
शाम से ही जाने क्यों सभी का
मन उखड़ा हुआ था । ऐसा अक्सर होता है कि एक उम्र और एक सी परिस्थितियों में रहने
वालों की मन:स्थिति भी अक्सर एक सी हो जाती है । शाम को सिटी यानि दंगवाड़ा गाँव
जाने का चस्का लग चुका है सो यह भ्रमण भी संपन्न हुआ । गाँव वालों से हमारी
मित्रता हो चुकी है । इसलिए कि हम लोग
उनके बीच जाकर उन्हीं की तरह हो जाते थे । हमने ठान रखा है कि अन्य
शहरियों की तरह उन्हें कोई उपदेश नहीं देंगे न उन्हें किताबी ज्ञान की बातें बताएँगे
। वे अपनी स्थितियों से भले ही पूरी तरह खुश न हों लेकिन हम जानते हैं कि उन्हें
उनकी स्थितियों से बाहर निकालने के लिए हम
कुछ भी नहीं कर सकते हैं । ज़्यादा से ज़्यादा व्यवस्था को गाली दे सकते हैं और उन्हें
उनकी ज़िल्लत का अहसास दिला सकते हैं ।
लेकिन इससे क्या हो जाएगा ? क्या इससे उनकी दशा बदल जाएगी ? हमें अपनी सीमाएं पता हैं
और हम उन्हीं सीमाओं के भीतर रहकर उनसे
सम्बन्ध स्थापित कर रहे हैं ।
कभी कभी मन ख़राब हो जाता है
अपने देश के गाँवों की स्थितियाँ देखकर । आज़ादी के इतने साल बाद भी शिक्षा
स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित यह लोग आखिर देश के विकास में क्या
योगदान दे सकते हैं ? सत्ताधीश इन्हें केवल वोट बैंक समझते हैं और इन्हें ठीक ठीक मनुष्य का दर्ज़ा भी नही देते । रवीन्द्र
जब भी मुझसे इस परेशानी को शेयर करना चाहता मैं उसे दुष्यंत का वह शेर सुना देता हूँ
“ दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो / उनके हाथों में है पिन्जरा उनके पिंजरे
में सुआ ।
कल् रात भी ऐसा ही कुछ हुआ ।
खाना खाकर हम लोग तंबू में बैठे ही थे कि रवीन्द्र ने फरमाइश की “ यार कितने दिन
हो गए तेरी आवाज़ में दुष्यंत की गज़लें नहीं सुनी “ बस फिर क्या था वह रात दुष्यंत
की गज़लों के नाम से रही … “ मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ वो गज़ल आपको सुनाता हूं ॥“
से लेकर तमाम गज़लें ।
रात पता ही नहीं चला हम
कितने बजे सोए ।
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